शिलांग यात्रा - प्रस्थान दिवस

एक सरकारी मुलाज़िम अपने भविष्य को लेकर सुरक्षित रहता है, यह मेरा मानना है। कम से कम यह चिंता तो नहीं ही रहती कि किसी छोटी-मोटी चूक के कारण उसे नौकरी से निकाल बाहर किया जायेगा। मैं अभी तक सरकारी नौकरी के इसी रौब और सुरक्षित भविष्य की गारंटी से महरूम हुँ। सीमित संसाधनों और आजीविका कमाने के चक्कर में बहुधा लोग अपने शौक पूरे नहीं कर पाते। मैं कोई अपवाद नहीं हुँ और इस पी़ङा को भली-भांति समझता हुँ। घुमक्कङी मेरा शौक जो है और धीरे-धीरे जैसे मेरे डी.एन.ए. में रमता जा रहा है। यही नही अक्सर कोढ में खाज की तरह मेरे साथ होता ये भी होता है कि जब कहीं निकलने का प्लान बनाने लगता हूँ तो घर वाले सवालों और आपत्तियों की बँदूक मेरी छाती पर तान देते हैं। कोई कहता है- क्यूँ पैसे ख़राब कर रहा है। कोई कहता है- ऐ बेटा मेरा तो पहले तै ऐ जी घबरावे है, मत जा। और भी कोई कुछ कहता है तो कोई कुछ। पर बंदे में घुमक्कङी का ऐसा कीङा है कि सब काम निकल जाऐ एक ऐसा बीच का रास्ता निकाल लिया। सरकारी नौकरीयों के दुर-दुर के फॉर्म भरने भी शुरु कर दिऐ। घुमक्कङी की घुमक्कङी और साथ ही नौकरी की तलाश। तो दोस्तों, 2011 में की गई अपनी इस उत्तर-पूर्व भारत की यात्रा को लेकर मैं पहली बार आपके बीच हूँ। हालांकि इसी साइट पर इससे पहले मैं वैष्णों देवी यात्रा 2011 भी प्रकाशित कर चुका हुँ।
तो आइये चलते हैं शिलांग की यात्रा पर कुछ कदम मेरे साथ।


यह जुलाई 2011 का महीना था जब मुझे सूचित किया गया कि भारतीय नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की मेघालय सर्कल की एम.टी.एस. नियुक्तियों की परीक्षा हेतु मुझे शार्ट-लिस्ट कर लिया गया है। परीक्षा दिनाँक 02 अगस्त 2011 को तय बताई गई थी। मैं खुश। मजा आ गया। जिंदगी में पहली बार इतनी दूर घुमने को मिल रहा था। तुरंत बहादुरगढ रेलवे स्टेशन गया गुवाहाटी तक सीट आरक्षित कराने के लिऐ। शिलांग जाने के लिऐ गुवाहाटी (असम) ही निकटतम रेलवे स्टेशन है। गुवाहाटी से शिलांग की दूरी है लगभग 135 किलोमीटर। मैं ये सब सोच ही रहा था कि टिकट क्लर्क ने कहा कि गुवाहाटी के लिए Avadh-Assam Express रेल में प्रतीक्षा-सूची 140 से भी आगे निकल गई है। मुझे करंट-सा लगा कि 1900 किलोमीटर की यात्रा खङे-खङे कैसे हो पायेगी। अन्य गाङियों में भी वेटिंग ही चल रही थी। जाना भी आवश्यक था। फिर सोचा जो होगा देखा जाऐगा और टिकट क्लर्क को पैसे थमा दिये व स्लीपर क्लास की टिकट ले ली। मुझे ऐसा ध्यान है कि यह टिकट 480 रुपये की थी। ख़ैर टिकट ले कर घर आ गया और उस निश्चित दिवस की प्रतीक्षा करने लगा।

शिलांग की ओर

और फिर आख़िर वो दिन भी आ गया, शिलांग-प्रस्थान का दिन।
पहला दिन
लगभग एक सप्ताह की इस यात्रा के बारे में मैंने स्कूल में अपने पार्टनरों को पहले ही बता दिया था। बैग में तीन जोङी कपङे रखे, कुछ बिसकुट और नमकीन के पैकेट और अन्य जरूरी सामान जैसे साबुन, तेल आदि। बहादुरगढ पहुँच गया। Avadh-Assam Express लालगढ से आती है। यह बहादुरगढ से सवेरे 06 बजकर 30 मिनट के आस-पास चली। मन बल्लियों उछल रहा था कि कहां तो मुश्किल से घुमने का मौका मिलता था और कहां 2000 किलोमीटर दूर शिलांग जाने का मिल रहा है। अवध-असम एक्सप्रेस दिल्ली जंक्शन पर लगभग आधा घंटा रूकती है। यहां गाङी रूकी तो मैंने टी.टी. से सेटिंग कर के सीट कन्फर्म कराने की कोशिश की मगर व्यर्थ। इसके बाद भी कई बार मैंने सीट पाने की जुगत भिङाने की कोशिश की मगर किस्मत नामालूम कहां पङ कर सोई हुई थी। सीट ना मिलनी थी ना मिली। और मैं ही जानता हूँ कि उस रेल ने मेरी कैसी रेल बनाई। किसी के पास भी बैठ जाता तो हरामी जल्दी ही ये कह के उठा देते कि यह हमारी सीट है, आप उठ जाओ वरना बाद में इस पर कब्जा कर लोगे। गाङी में इधर-उधर घुमते-घामते, यहां-वहां सीटों पर बैठते मुरादाबाद कब का निकल गया बरेली भी आ गया। अब तक काफी परेशान हो गया था। एक सीट पर बैठ गया। हां, एक बात और बता दूँ आप लोगों को कि यात्रा में लेटने या बैठने के लिऐ बहादुरगढ से गुवाहाटी तक मैंने रेल का डिब्बा बदली नहीं किया। वैसे बीच-बीच में पूरी रेलगाङी में घुमता रहा कि शायद कहीं खाली सीट दिख जाऐ और मेरा दांव लग जाऐ लेकिन नहीं लगा। तभी जिस सीट पर मैं बैठा था उसका "मालिक" बोला कि यह हमारी सीट है, आप उठ जाओ..............। मैंने उसे अपनी व्यथा-कथा सुनाने की कोशिश की पर बंदा "अपनी" सीट कह-कह कर धौंस जमाये जा रहा, मेरी सुणे ही ना। अपणी जाट-बुद्धि खराब। परेशान पहले ही धणा हो लिया था। सीट के "मालिक" की पकङी गुद्दी अर मारया दे कै। सीट के नीचै पाया। बस इतणा होण की देर थी कि उसका लेक्चर शुरु हो गया- किसी के साथ ऐसा करते है क्या, तुम्हें तमीज नहीं है, टी.टी. को आने दे, देख लूंगा। मैंने कहा- आराम तै बैठ ज्या अक कुछ और ले कै टिकैगा। वो बङ-बङ करता रहा, मैं सीट पर आराम से पीछे सिर टिका कर सो गया। हालांकि बाद में उसने फिर दिक्कत नहीं दी। शाम को साढे छह बजे आँख खुली और स्वयं को नवाबों के शहर लखनऊ में पाया। यह गाङी यहां लगभग आधा घंटा रूकती है। नीचे उतरा, चाय-समोसे खाये, थोङा इधर-उधर घुमा और फिर से गाङी में पैक। रेलगाङी भी सीटी बजाते हुये धीरे-धीरे स्टेशन छोङने लगी। एक के बाद एक स्टेशन पीछे छोङते हुऐ रात के नौ बजते-बजते गोंडा जंक्शन पहुँच गया।

ट्रेन में रात को सोने का इंतजाम

अब सोचने लगा कि दिन तो कट गया पर ऐसे रात कैसे कटेगी। सोने की जगह की तलाश में आँखें इधर-उधर दाऐं-बाऐं देखने लगीं। जगह नहीं दिखी। हे भगवान अब रात कैसे कटेगी। और जैसे ही सिर ऊपर उठाया आँखें चमक गईं। उपर की बर्थ पर सामान के दो बोरे थे। वह बर्थ किसी ने अपने सामान के लिए बुक करवाई हुई थी, यह मुझे बाद में पता चला। दिन के समय मैंने इस तरफ ध्यान ही नहीं दिया था। उपर चढा। बङी मश्किल से एक बोरे को दुसरे बोरे के उपर चढाया। इतनी जगह निकल आई कि सिर बोरे पर रख लूँ तो सीट के आख़िरी सिरे तक कुल्हे आ जाऐं। अब पैरों का इंतजाम करना था क्योंकि वे नीचे लटक रहे थे। पैरों को उपर की ओर उठा कर छत वाले पंखे पर रख लिया। रेलगाङी के छत वाले पंखे पर लोहे की जाली चारों ओर लगी होती है। तो पंखा बेशक चलता रहता, मुझे चोट लगने की कोई गुंजाईश नहीं थी। रात कटने का जुगाङ हो गया था। आँख भी लग गई।

Bridge on Ganges at Garh Mukateswar
गढ-मुक्तेश्वर में गंगा पर बना पुल

Soldiers playing cards in Train
रेल में ताश खेलते सेना के जवान (फोटु थोङा ख़राब है, मैनेज कर लेना)

Lucknow Railway Station
लखनउ रेलवे स्टेशन

Fields in Uttar Pradesh
यू. पी. के खेत

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2 टिप्पणियाँ

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